बुधवार, 7 नवंबर 2007

निश्प्रभावी सक्रियता

गिरिडीह में नक्सलियों द्वारा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के बेटे समेत 18 लोगों की हत्या के सिलसिले में राज्य सरकार की तरह से ही केंद्र सरकार की घिसी-पिटी प्रतिक्रिया सामने आना किसी को भी आक्रोश और क्षोभ से भर देने के लिए पर्याप्त है। आखिर केंद्रीय सत्ता ऐसी घटनाओं पर कब तक चिंता जताने और राज्य सरकार से घटना का विवरण जानने तक स्वयं को सीमित रखेगी? हिंसा और हत्या पर उतारू नक्सलियों के खिलाफ राज्य सरकारें तो असहज हैं ही, केंद्रीय सत्ता भी पूरी तौर पर विफल और साथ ही असहज नजर आ रही है। यदि केंद्र सरकार देश के 13 राज्यों में फैल चुके नक्सली संगठनों पर काबू पाने में समर्थ नहीं है तो फिर वह उनके संदर्भ में अपनी निश्प्रभावी सक्रियता क्यों दिखा रही है? बेहतर हो कि केंद्र सरकार और विशेष रूप से केंद्रीय गृह मंत्रालय राज्यों को यह संदेश दे दे कि नक्सली संगठनों पर अंकुश लगाने के मामले में वे उसके भरोसे न रहें। इसी वर्ष मार्च में जब जमशेदपुर में नक्सलियों ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद सुनील महतो की उनके अंगरक्षकों समेत हत्या की थी तब केंद्रीय सत्ता ने ऐसा कुछ जाहिर किया था जैसे वह इस घटना से बहुत विचलित है और नक्सली संगठनों पर लगाम लगाकर रहेगी। नक्सलियों ने जिस प्रकार जमशेदपुर की ही तरह गिरिडीह में अपना खूनी खेल खेला उससे यह साफ है कि केंद्रीय सत्ता ने मार्च में राज्य और राष्ट्र को जो आश्वासन दिया था वह महज कागजी था। नक्सली संगठनों पर काबू पाने के मामले में केंद्रीय सत्ता के नाकारेपन के प्रमाण छत्ताीसगढ़ में भी मिल चुके हैं और बिहार, उड़ीसा तथा आंध्र प्रदेश में भी। ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार नक्सलियों के खिलाफ नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों को कोई दिशा-निर्देश अथवा मदद देने के मामले में सिर्फ कोरी औपचारिकता का निर्वाह कर रही है। यदि ऐसा कुछ नहीं होता तो नक्सलियों का दुस्साहस निरंतर बढ़ता नहीं रहता।
इसमें संदेह नहीं कि नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों का पुलिस बल बहुत ही ढीला-ढाला और संसाधनों से रहित है, लेकिन क्या केंद्रीय सत्ता उनकी मदद नहीं कर सकती? यह चिंताजनक है कि नक्सली संगठन न केवल दुस्साहसी होते चले जा रहे हैं, बल्कि कहीं अधिक आधुनिक हथियारों और विस्फोटक सामग्री से लैस भी होते जा रहे हैं। यह सामान्य बात नहीं कि गिरिडीह में उन्होंने सीआरपीएफ जवानों की वर्दी पहनकर घटना को अंजाम दिया। यदि यही हाल रहा तो नक्सली अन्य राज्यों में भी अपना खूनी खेल दिखाएंगे और हमारे गृहमंत्री तथा प्रधानमंत्री उन्हें आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करते रहेंगे। गिरिडीह की घटना इसलिए कहीं अधिक आघातकारी है, क्योंकि बाबूलाल मरांडी उन चंद नेताओं में से हैं जो नक्सलियों का खुलकर विरोध कर रहे हैं। यह निराशाजनक भी है और चिंताजनक भी कि अब स्थानीय स्तर पर नक्सली संगठनों को ललकारने वाले राजनेताओं की संख्या लगातार कम होती चली जा रही है। चूंकि झारखंड की सरकार केंद्र सरकार के समर्थन से ही सत्ता पर टिकी हुई है इसलिए किसी न किसी स्तर पर इस घटना की जिम्मेदारी उसे भी लेनी होगी। इतना ही नहीं, उसे राज्यों को साथ लेकर नक्सलियों के खिलाफ कोई व्यापक और सघन अभियान भी छेड़ना होगा, क्योंकि वे सचमुच आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे गंभीर खतरे के रूप में उभर आए हैं।

Nishat Shamsi..
Crime Correspondent
IBN 7.. Mumbai

बुधवार, 10 अक्तूबर 2007

PROSTITUTION – A SOCIETAL NEED OR NECESSITY

In a democratic country like India, each and every individual has the right of living life in the way they want to. People talk of Human Rights at lengths. Be it a smallest of issue people stand up to fight for Human Rights. It is that extensive that even the rights of the animals are fought for. But how many of us really talk about the rights of those females who are forced into the business of selling their bodies for earning a loaf of bread for themselves and their families. Talking about their life is a far off matter people don’t even find their life worth being respected.
One of the major reasons of prostitution is trans-border human trafficking. Women and teenage girls are trafficked from remote areas and are sold in the flesh trade ultimately giving rise to prostitution. Usually, there exists a notion in the masses that women indulge in this business on their own wish. But this is not true on the larger whole. The girls doing this on their wish are not the ones who live in the brothels but mostly they are the girls staying away from their home on account of studying. They indulge in the business for meeting that extra expense that their parents refuse to provide them with or sometimes they even do it for just the fun of it.
On the contrary, the girls coerced in the trade are nipped in the bud. They struggle for every bit of air that they survive on and even sometimes go through severe torture that they can’t revolt against. The suffering doesn’t end here, they and their children are treated as untouchables by the society. Like every other mother they also wish to give a good life and education to their children but fail most of the time because they are not accepted by the society. Their kids end up living a similar life as their mothers do in search of respect and recognition.
This is really very tough to believe that we live in a society that can accept a father who rape his daughter but does not accept the daughter who is forced to sell her body to survive. Some people argue that prostitution should be legalized, as it is necessary for other women to live safe life. Otherwise the rape rate will rise beyond limits and the women of respected families will no longer be safe in the society. Does that mean we the people of so called respected families, we who make the society are so selfish that to protect our sisters and daughters we can put on stake somebody else’s daughter and sister’s life? Isn’t that inhuman?

Some NGOs demand legalization of prostitution. But does legalization by any means put a check on human trafficking, illiteracy or poverty?

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007

राजनीति का नया हथियार "सेतु समुद्र्म"

"आयोध्या के बाद अब रामसेतु"

रामसेतु मुद्दे नें इन दिनों तूल पकड़ा हुआ है। रामसेतु मामले पर केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामा वापस ले लेने, और इस सारी प्रक्रिया के बीच श्री राम चंद्र के बारे में दिये गए आपत्ति जनक बयान से केंद्र कि देश भर में हुई मुश्किलें भले ही मन्द पड़ गई हो, लेकिन देश में आ रहे मध्यावधि चुनाव में कुछ राजनेता इस मुद्दे को चुनावी हथियार बनाने कि तैयारी में हैं। जिनमें से कुछ नेताओं नें तो इसका खुला ऐलान भी कर दिया है। यानि रामसेतु के विरोध में देश कि राजनीति सबसे आगे दौड़ती नज़र आ रही है।
आख़िर कब तक ये राजनीति धर्म से खिलवाड़ करती रहेगी? यू।पी में भी जब-जब चुनाव नजदीक आते हैं तब-तब राजनेता इस मुद्दे को चुनाव लड़ने को इस्तेमाल करते हैं। और इसके कारण सैकड़ों लोगों कि जानें जाती हैं। और जाने कितने घर बर्बाद होते हैं। अब राजनेताओं को एक नया मुद्दा मिल गया है चुनाव लड़ने के लिए। राजनीति एक ऐसा मन्त्र है जो लोगों के कर्म से लेकर धर तक को इस्तेमाल करती है। मैं कहता हूँ कि कोई धर्म आपस में लड़ने कियो इजाजत नही देता फिर क्यों लोग आपस में लड़ रहे हैं? वो भी राम के अस्तित्व को लेकर।
हकीक़त तो ये है कि आज कोई भी नेता मौजूद नही जो बिना किसी मुद्दे के चुनाव लड़ सके। चलो एक दुसरे कि बुरे तो एक सीमित बात थुई लेकिन ये कौन सी राह है जो नेता लोग अपना रहे हैं। धर्म को राजनीति में आता देख लोग भी बहुत प्रभावित हैं। ये राजनीति लोगों कि धार्मिक भावनाओं से खेल रही है। अगर केंद्र सरकार नें एसे विवादों को राजनीती में लाने पर रोक ना लगाई तो एक दिन पुरे देश को इससे नुकसान उठाना पड़ सकता है। केंद्र सरकार को एसे नियम बनाने चाहिऐ कि कोई भी नेता धर्म को लेकर चुनाव ना लड़े, इससे वोटों का भी गलत इस्तेमाल होता है।
अगर राजनीती में धर्मों को खेल बंद ना हुआ तो एक दिन लोग राजनीती के चक्कर में भाईचारा ख़त्म कर बैठेगें। और फिर धार्मिक लड़ाइयाँ शुरू हो जायेगीं।

बुधवार, 3 अक्तूबर 2007

राजनीती कि लगती है अलग अदालत

६६ में से ६५ मामलों में नेता बरी
अभी कुछ दिन पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने चिन्ता व्यक्त कि है कि गवाहों के मुकर जाने के कारण अपराधी छवि वाले नेता बरी हो जाते हैं। न्यायालय ने कहा है कि अपराधी छवि रखने वाले नेताओं के खिलाफ मुकदमों में गवाहों का गवाही से मुकार जाना और उनके पक्ष में हो जाने जैसी घटनाएं बहुत ही भयंकर रूप ले रहीं हैं। जिसके कारण वास्तविक पीड़ितों के साथ अन्याय होता है। उन्हें न्याय नही मिल पता।
इस कारण न्यायिक प्रक्रिया भी बाधित होती है। क्योंकि न्याय कि मुख्य भुमिका गवाहों कि होती है। जब गवाह ही बयान से मुकर जायेगें तो न्याय कैसे होगा? और सभी राजनेता अपने धन बल पर गवाहों को अपने पक्ष में कर लेते हैं। हाल ही में निचली अदालत द्वारा, हाई कोर्ट में भेज गए ६६ मामलों में से ६५ मामलों में नेताओं को बरी कर दिया गया जिसका कारण गवाहों का नेताओं के पक्ष में हो जाना या गवाही से पलट जाना है। इस खबर को पढ़कर मुझे बड़ा ही दुःख हुआ अगर ये सिलसिला जारी रहा तो लोगों का विश्वास अदालत से भी उठ जाएगा। और ये नेता बार-बार गुनाह करके बरी होते रहेगें। इन नेताओं को जिन मुकदमों में बरी किया गया उनमें हत्या, लूट, डकैती, भूमि क़ब्जा, अपहरण और फिरौती जैसे संगीन अपराध के मामले भी शामिल हैं। और इन मामलों में नेताओं ने गवाहों को अपने पक्ष में कर लिया चाहे वो पैसे के बल पर किया हो या डरा धमकाकर। और जिसके चलते ये नेता मुकदमा जीतनें में सफल रहे।
अदालत भी फैसला गवाहों कि बुनियाद पर करती है यह भी कानून कि लाचारी है। अदालत सबकुछ जानते हुए भी गवाहों कि वजह से अक्सर गलत फैसला कर देती है। जज सबकुछ जानते हुए भी गवाहों के कारन अन्याय करने को मजबूर रहते हैं। राजनेता अपनी हरकतों से तो बाज़ आयेगें नही मेरे ख़्याल से कानून को उन गवाहों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए जो अपने बयान से पलट जाते हैं जिन्हे कुछ रूपये देकर नेता खरीद लेते हैं।
कुछ मामलें ऐसे भी होगें जिनमे नेता गवाहों को डराते धमकाते होगें तो उनकी पहचान सरकार को गुप्त रखनी चाहिए। कानून जैसा एक साधारण मनुष्य के लिए है वैसा ही इन राजनेताओं के लिए भी होना चाहिए। जब सरकार को पता है कि गवाहों के कारण ये अपराधी नेता बचते रहते हैं तो उन गवाहों के खिलाफ मुकदमा क्यों नही दायर किया।
और उन नेताओं के खिलाफ भी कड़ी कार्यवाही कि जानी चाहिए जिनके गवाह मुकर जाते हैं। उन गवाहों से पूछताछ करके गहराई तक जाया जाये कि आख़िर वो लोग बयान से क्यों पलटे? किस दबाव के कारण उन्होने बयान बदला या क्यों उन्होने रिश्वत ली और क्यों नेता ने उसे रिश्वत दी। रिश्वत देने वाला और लेने वाला दोनो ही अपराधी होते हैं। इस तरह से गवाहों के खिलाफ आवाज़ उठाई तो इन अपराधी नेताओं को सज़ा दी जा सकती है वैसे जहाँ तक मेरा विचार है एक अपराधी नेता हो ही नही सकता।

सोमवार, 1 अक्तूबर 2007

और किसे पीछे करेगें नेता?

कुछ दिन पूर्व ट्वेंटी- २० में विश्व कप जीकर लौटी, भारतीय टीम के स्वागत में भारतीय किर्केट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष शरद पवार ने कोई कसर नही छोड़ी। टीम का पूरा जुलूस निकला गया जो सहारा एअरपोर्ट से शुरू होकर वानखेड़े स्टेड़ियम पर खत्म हुआ जहाँ लाखो लोग अपने चहेते खिलाडियों कि एक झलक पाने के लिए बेताब थे और पहले से वहां मौजूद थे। यानि लोगों ने अपनी ख़ुशी पूरी तरह ज़ाहिर कि जुलूस मे भी लोगों ने बढ़- चढ़ कर हिस्सा लिया। लेकिन बात यहीं पर ख़त्म नही होती राजनेताओं ने यहाँ भी अपना राजनितिक खेल खेला! शरद पवार जी ने अपने सभी कार्यकर्ताओं (राकपां के नेताओं) को स्टेडियम में अगली पंक्ति में बैठाया जबकि असली खिलाड़ियों को उनके पीछे बैठाया गया। भीड़ से खचा-खच भेरे स्टेडियम में लोग अपना सा मुँह लिए खड़े रहे आख़िर और वे किसे देखते? वे देखने क्या आये थे और उन्हें देखना क्या पड़ा?
इस बात से लोगों को बहुत ही अफ़सोस हुआ कि आखिर खिलाड़ियों को पीछे क्यों बैठाया गया और नेता आगे क्यों बैठे । आख़िर और किसे-किसे पीछे करेगी ये राजनीति और राजनेता? शायद वानखेड़े स्टेडियम में खिलाड़ियों का स्वागत नहीं राकांपा के नेताओं का स्टेज शो होगा, जिसके हीरो शरद पवार जी होगें। शायद एसा ही कुछ सोचा होगा शरद पवार जी ने जुलुस तो लोग याद रखेगें ही लेकिन वान्खेदे स्टेडियम को भी लोग नही भुला पायेगें. जो राजनेता स्टेज पर बैठे थे उन्होने दर्शकों कि भावनाओं पर पानी फेर दिया। लोग असली हेरों को ही नही देख पायें।

आजकल कि राजनीति बिल्कुल बेशर्म हो गई है। और राजनेताओं को सिर्फ अपनी कुर्सी का ख़्याल है। चाहे इसके लिए उन्हें किसी को आगे बढाना पडे या किसी को पीछे बैठाना पडे बस इनकी पार्टी चलनी चाहिए।

बुधवार, 19 सितंबर 2007

एकता और वारदात?

हमारे देश की एकता सारे देश में मिसाल बनी हुई है। हमारे देश में रहने वाला हर नागरिक अपनी राष्ट्रीयता पर गर्व करता है, कि वह एसे देश में पैदा हुआ जहाँ हर मज़हब के लोग रहते हैं, जहाँ भिन्न -भिन्न भाषायें बोली जाती हैं, जो भिन्न होते हुए भिन्न एकता कि मिसाल कायम करते हैं। यहाँ के लोग एसे हैं कि देश के लिए अगर उन्हें अपने खूण कि आहुति देनी पड़े तो वे इस कार्य में अपना गर्व महसूस करेंगे। इस देश कि असल एकता तो तब देखने को मिलती है जब देश के किसी हिस्से में प्रकृति कि तरफ से कोई संकट आती है या असामाजिक तत्वों के कारण कहीँ मजहब कि आग़ भड्कती है । उस स्थिति में हर नागरिक देश में शांति कि दुवायें करता है । उससे जितना भिन्न होता है वो संकट में पीड़ित लोगों कि भी तन -मन-धन से सहायता करता है । चाहे उसका मज़हब कोई भी हो या बोली कोई भी हो।
लेकिन देश में इतनी एकता के बावजूद लोग अपने आप को सुरक्षित महसूस नही करते हैं। इसका कारण चाहे कुछ भी हो। पहले जब कोई व्यक्ति कहीँ अकेला सफ़र करता था या कहीँ अकेला जाता था और उसे राह में कोई दूसरा व्यक्ति मिल जता था तो वह ख़ुशी से फूला नही समाता था और मन ही मन सोचता था कि अब किसी जानवर का डर नही अब हम एक और एक ग्यारह हैं। लेकिन आज अगर कोई व्यक्ति कहीँ जता है और उसे उसी राह का कोई व्यक्ति मिलता है तो उसका ख़ून सूख जाता है, और वो मन ही मन सोचता है कि कहीँ ये व्यक्ति मुझे मार न डाले, मुझे लूट न ले, मुझे अगवा न कर ले यानी उसकी सोच दूसरे के प्रति बिल्कुल उल्टी हो जाती है। आजकल कोई व्यक्ति दुसरे पर भरोसा नही करता है हमेशा दूसरे के प्रति गलत ही सोचता है। इसलिये आज हमारे देश में इतनी एकता के बावजूद अनेकता है।
आजकल चौराहों पर लुट पाट, महिलाओं से छेड़-छाड़ आदि तो अब आम बात हो चुकी है। आयदिन अखबारों में ये खबरें पढने को मिल जाती हैं लेकिन कभी हमें यह पढने को नही मिलता की किसी ने इसके खिलाफ आवाज़ उठाई। अपराधी हमारी खामोशी का फायदा उठाकर ही लोगों को परेशान करते हैं। वे जानते हैं की आजकल कोई किसी के लिए आवाज़ नही उठाता, लोगों के दिलों से इंसानियत निकल चुकी है। ट्रेनों में तो बालात्कार जैसी घटनाएं आम बात बन चुकी हैं। आजकल अपराधी अपने आप को खुला महसूस करते हैं उन्हें किसी महिला का बलात्कार करने, किसी की हत्या करने में ज़रा भी संकोच नही। वे निडर होकर अपने काम को अंजाम देतें हैं और लोगों का मजमा तमाशा देखने के सिवा कुछ नही कर पाते।
क्या हम किसी जुर्म के खिलाफ एकजुट होकर आवाज़ नही उठा सकते? आज हर शख्स अपनी ही उलझनों में उलझा हुआ है कोई किसी के चक्कर में नही पड़ना चाहता। मैं आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ की लुट पाट करने वालों की संख्या कितनी होई है दो, चार, पंच, दस इतनी ही और मजमा देखनें वाले लोगों की भीड़ कितनी ? क्या हम उनका मुकाबला नही कर सकते हैं? क्या हमारे अन्दर इतनी इंसानियत भी बाक़ी नही की किसी की आबरू को लुटने से नही बच सकते? अगर कोई आवाज़ नही उठाता तो कम से कम हमें आवाज़ उठानी चाहिए जिससे की हमे देखकर लोगों के दिलों में जोश पैदा हो जाये।
हमे ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए की अगर ये घटनाओं का क्रम एसे ही चलता रह तो कल मेरा या तुम्हारा नंबर भी हो सकता है। इसलिये हमें अपनी एकता की मिसाल यहाँ भी बरकरार रखते हुए इसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिऐ। अभी हमने सिर्फ आजादी हासिल की है लेकिन हमें अभी अपनें दिलों को एक द्युसरे जोड़ना होगा। सुरक्षित सफ़र और घूमने की आजे हासिल करनी होगी। और यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम इसके खिलाफ आवाज़ उठाएं और अपराधियों के दिलों में अपनी एकता का खौफ़ पैदा कर दें।

सोमवार, 10 सितंबर 2007

''ग्लैमरस की दुनिया'' एक बदरंग हकीक़त

ग्लैमरस कि दुनिया सुनकर ही अंदाज़ा हो जाता है कि कितनी हसीन होगी ये दुनिया, क्या है ये ? आधुनिकता का लिबास पहने हुए लोग, शानो-शौकत से लबरेज़ जिन्दगी! आख़िर क्या है इस सतरंगी सपने का सच? लेकिन जितनी खूबसूरत ये दुनिया है उससे कंहीं ज्यादा कड़वा सच है इस दुनिया मे अपनी किस्मत आजमाने वालों का आख़िर क्या है इस दुनिया मे? क्या हर शख्स इसकी सच्चाई से वाकिफ नही?
आजकल के इस युग मे जहाँ तक कैरियर का सवाल होता है तो दस मे से आठ युवा अपनी किस्मत माडलिंग मे आज़माना चाहते हैं। शायद युवा अभी इसके दूसरे रूप से अनजान हैं। लोग कहते हैं कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है लेकिन, लेकिन इस फिल्ड में आपको अक्सर एसे लोगों से मुलाक़ात होगी जिन्होंने कुछ पाकर खो दिया। जी हाँ जिन्होंने माँडलिंग के चक्कर में पड़कर अपनी जिन्दगी को खो दिया या जो मंज़िल पे पहुंच कर नशे के आदि हो गए और अपनी जिन्दगी को बर्बाद कर लिया। एसे आपको कई उदाहरण देखने को मिल जायेगें।
गीतांजली नागपाल भी उन्ही उदाहरणों में से एक है जो ९० के दशक कि एक बेहतरीन मॉडल थी लेकिन अब दिल्ली के हौज़-खास के गाँव की वीरान गलियों में भटकती फिरती है। वह अब रोटी मांगती भिखारिओं की तरह दिखती है और अपनी रातों को मंदिरों में गुज़ारती है। जिसके लिए कल कई कम्पनी पैसा लगाने को तैयार थी आज उसको देखने वाला भी कोई नही। गीतांजली ने अपनी ज़िन्दगी नशे के चक्कर में बर्बाद कर ली। वह लडकी आज नशीली दवाओं और शराब कि आदि हो चुकी है। नशा करने के लिए घर पर पैसे मांगने के कारण उसके घरवालों ने भी उससे अपना दामन झाड़ लिया है। उसके परिवार के सदस्यों का कहना है कि गीतांजली ने धीरे-धीरे गलैमर से नशे को अपना लिया है और अपनी मानसिकता को खो दिया है। डाक्टरों का कहना है कि गीतांजली मानसिक तौर से ठीक नही, वो नशा करने कि आदि हो चुकी है।
और सच्चाई भी यही है कि आज इस फिल्ड में जाने के लिए युवा कुछ भी करने को तैयार है चाहे उन्हें अपने फिगर को शेप-अप करने के लिए सिगरेट, शराब का सहारा लेना पड़े या पर्दे पर आने के लिए कास्टिंग काउच से गुज़ारना पड़े। शायद युवा पिड़ी आधुनिकता कि चमक में अंधी हो गई है उसे हर चमकती चीज़ सोना नज़र आ रही है। लेकिन इस युवा पीड़ी को कौन समझाये कि हर चमकती चीज़ सोना नही होती है। तो यही है ग्लैमरस कि दुनिया कि बदरंग हकीक़त जिसमें रंगकर कुछ ही लोग सफलता कि ऊँचाइयों को छू पाते हैं और कुछ लोग राक्ह जाते हैं गुमनामी के अँधेरे में। और जिनकी ज़िन्दगी यूं ही खामोशी से दम तोड़ देती है।

गुरुवार, 6 सितंबर 2007

जुर्म का प्लेटफार्म बनती राजनीति

आजकल अपने देश कि राजनीति का रुख बदला- बदला दिखाई पड़ रहा है। जहाँ कल राजनीति का खेल जुर्म रोकने के लिए खेला जाता था आज वहीँ, राजनीति लोगों को जुर्म का प्लेटफार्म प्रदान कर रही है। राजनीति मे आई इस तब्दीली का दोष हम न तो किसी पार्टी को दे सकते हैं और न किसी नेता के ऊपर ऊँगली उठा सकते हैं। एक ज़माना होता था जब अच्छे व्यक्तित्व वाले लोग लोग राजनीती में उतरते थे और समाज को अपराधिक तत्वों से बचाकर सुरक्षा प्रदान करते थे, लोगों के दिलों मे एक दूसरे के मज़हब के लिए सम्मान पैदा करते थे, ताकि लोगों के दिलों मे एक दूसरे के धर्म के प्रति कोई भेद भाव न हो। लेकिन आज कि राजनीति पुरानी राजनीति से बिल्कुल अलग नज़र आती है। आजकल कि राजनीति मे राजनेता एसी-एसी हरकत करने लगे हैं जिसका हम तुम तो अंदाज़ा भी नही लगा सकते। अब अयोध्या को ही ले लीजिये अलेक्शन में हर बार अयोध्या का मुद्दा उठाया जाता है जिसके चलते न जाने कितने स्थानों पे मज़हब कि आग भड़कती है, और उसी आग में न जाने कितने निर्दोषों कि अर्थी भी जल जाती है। ये अलेक्शन कि आग तो ठण्डी हो जाती है, लेकिन उन निर्दोषों का क्या जो लोग अलेक्शन कि बलि चढ़ जाते हैं , उसमे बच्चे, बूढ़े, जवान सभी शामिल होते हैं, किसी कि गोद उजड़ती है किसी कि माँग का सिन्दूर ।
राजनीति अब एक धंधा बनकर रह गयी है । जिधर नेताओं को फायदा नज़र आता है उधर भागते दिखाई देते हैं । हमारे देश में कई ऐसे नेता भी मौजूद हैं जो किसी न किसी कांड के मुख्य आरोपी हैं। कई बार वे नेता जेल के मज़े भी चख चुके हैं । इन सब के बावजूद उन नेताओं के ऊपर कोई फर्क ही नही पड़ता कुर्सी पर आराम से क़मर लगाकर बैठते हैं। आजकल के नेता राजनीति में आकर शायद ये समझते हैं कि उन्हें जुर्म करने का प्लेटफार्म मिल गया हो। इसकी मुख्य उदाहरण भी बहुत हैं लेकिन मैं यहाँ बयां नही करना चाहता । आज नेता लोग अपनी कुर्सी के चक्कर में न तो समाज का फायदा सोचते हैं और न देश का।
जरा गौर कीजिये कि वो लोग समाज को अपराधों से कैसे रोक सकते हैं जो खुद किसी न किसी अपराध के मुख्य आरोपी हो। ये बात सही है कि जेल जाना तो नेताओं कि फितरत में पहले से ही लिखा है लेकिन आज और कल में फर्क सिर्फ इतना है कि '' कल के नेता जनता के हित में जेल जाते थे, और आज के नेता जनता को लूटने खसोटने, और दंगें करवाने के जुर्म में जाते हैं ''।
आज राजनिती कि छवि इतनी गंदी हो गई है की आज इज्जतदार व्यक्ति राजनीति के नाम से भी खामोश हो जाता है। राजनीति मे उतरने कि बात तो अलग है आज इज्जतदार व्यक्ति वोट डालने तक नही जाता, और उसका वोट कोई और डाल देता है। राजनीति में परिवर्तन कि शायद यह भी एक वजह हो सकती है। जनता भी क्या करे जब हर बार नज़रों के सामने नए चेहरे देखने को मिलते हैं जनता ये तय नही कर पाती कि अपना मतदान किसे दिया जाये अगर हमने जल्द ही आंखें नही खोली राजनेता मिलकर इस देश को दीमक कि तरह खा जायेंगे। अब देखना ये है कि आख़िर राजनीति कब तक माफियाओं का अड्डा बनती रहेगी और नेताओं को जुर्म करने का एक सुरशित प्लेटफार्म प्रदान कराती रहेगी। अगर ये अपराधी शख्सियत वाले लोग बार-बार आते रहें तो देश को अपराधों से कौन बचायेगा, लोगों को सुकून कौन दिलाएगा। इसलिये हमें समझ से काम लेना चाहिऐ और ऐसे लोगों कि मुखालफत करके अपने वोटों का सही इस्तेमाल करना चाहिऐ। और अपने वोट का सही इस्तेमाल करना चाहिऐ क्योंकि हमारा सही डाला गया एक -एक वोट किसी को जीता सकता है। आज कि राजनीति को देखकर मैं अपनी लिखी गई दो पंक्ति यहाँ वयक्त करना चाहता हूँ जो शायद आपके सामने आजकल कि हकीक़त को बयाँ कर दे।

राजनीति लोगों पे अब इल्जाम हो गई,
जनता मेरे भारत कि यूं हैरान हो गई।
हर तरफ ज़ुल्म का सा माहौल बन गया,
यूं राजनीति के चलन कि पहचान हो गई।

मंगलवार, 4 सितंबर 2007

भूल रहे हैं हम अपनी राष्ट्रीय भाषा

आजकल कि व्यस्त जिन्दगी में हम अपनी परम्पराओं, अपने कर्तव्यों के साथ-साथ अपनी राष्ट्र भाषा हिंदी को भी भूलते जा रहे हैं और अपने दैनिक जीवन मे हिंदी का बहुत ही कम प्रयोग कर रहे हैं। इसका कारण है विदेशी भाषा को महत्त्व देना और अपने जीवन मे इसका अधिक प्रयोग करना। अब हम अपने बच्चों को हिंदी स्कूलों मे नहीं पढ़ाना नही चाहते क्योंकि हिंदी स्कूलों में पढ़कर हमारा बच्चा ठीक से अंग्रेजी नही बोल पता और आज हर जगह चाहे वो कार्यालय हो, या कोई विद्यालय हो अंग्रेजी का बोलना बहुत जरुरी हो गया है। हिंदी से ज्यादा लोग अपनी जिन्दगी में अंग्रेजी को महत्त्व देने लगे हैं माना कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है लेकिन इसके चक्कर में हमे अपनी राष्ट्र भाषा को तो नही भूलना चाहिऐ।
आज सर्वाधिक पत्र पत्रिकाओं से लेकर समाचार पत्रों तक सभी अंग्रेजी मे ही प्रकाशित होने लगे हैं। यानी हर चीज़ अंग्रेजी मे प्रकाशित होने का चलन सा हो गया है जिससे लोगों को मजबूरन अंग्रेजी सीखनी पड़ रही है क्योंकि जब कोई भाषा बार बार नज़रों के आएगी तो उसका ज्ञान अवश्य ही लेना पड़ेगा। आज लोगों का रुझान हिंदी कि तरफ कम हो रहा है आजकल लोगों ने हिंदी के बीच - बीच में अंग्रेजी के कुछ अक्षर प्रयोग करने शुरू कर दिए हैं जिससे हिंदी कि शुद्धता कम हो रही है। यह भी एक कारण हो सकता है हिंदी को पछाड़ने का। और बाहर कालिजों मे तो दशा इतनी बुरी है कि शिक्षक और शिष्य हिंदी बोलना मानो जानते ही न हों वहां स्टाफ से लेकर सफ़ाई कर्मचारी तक अंग्रेजी मे ही बात करते हैं। जिसके कारण हिंदी मीडियम से आये विधार्थियों को बहुत ही दिक्कतें उठानी पड़ती हैं और पूर्ण रूप से अपनी प्रतिभा को नही दर्शा पाते बहुत से स्कुल और कालेज आपको ऐसे भी मिलेगें जहाँ कैम्पस के अन्दर हिंदी बोलने पर फाईन भरना पड़ता है और बच्चों को शिक्षकों कि डाट खानी पड़ती है। यानी हम अपनी राष्ट्र भाषा जिसे हम सदियों से बोलते आ रहे हैं , के बोलने पर बच्चों को शिक्षक कि डाट खाने पे मजबूर कर रहे हैं। हम भूल गए हैं कि कल इसी भाषा से ''इंकलाब जिंदाबाद'' जैसे नारे लगाए गए थे और आज हम इसी के बोलने पर पाबंदी लगा रहे हैं अपने बच्चों के स्कूलों मे फाईन भर रहे हैं लानत है हम पर। अगर कोई व्यक्ति अंग्रेजी बोलने मे सक्षम नही तो वो अपने आप को अपमानित महसूस कर्ता है अधूरा महसूस करता है हमने इतना सम्मान अंग्रेजी को क्यों दे दिया है जिसकी वजह से हमे नीचा देखना पड़ रह है। क्या हम अपनी भाषा को पिछड़ा हुआ समझ रहे हैं और हम इसे किस नज़रिये से देख रहे हैं ? क्या हमारी नज़रों मे इसकी कुछ कद्र नही है। हमे ये ध्यान नही है शायद कि हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है और राष्ट्र भाषा का मुकाबला कोई भाषा नही कर सकती चाहे वो कोई भी भाषा हो ।
ये हिंदी भाषी नेताओं का ही दम था जो आज हम आज़ाद हुए बैठे हैं और हर काम को अपनी मर्जी से कर सकते हैं। जिस भाषा को उन हिंदी भाषी नेताओं ने आज से लगभग साठ साल पहले इस देश कि सर जामी से उखाड़ फेंका था आज हम खुद उसे अपनी जिन्दगी के अन्दर ला रहें हैं। विदेशी भाषा ने हमारी संस्कृति को भी बहुत प्रभावित किया है कल जहाँ बच्चे सुबह -सुबह उठकर अपने माँ -बाप के चरण स्पर्श करते थे आज वंही गुड मार्निंग और हाय हेलो करते हैं। अगर हमारे देश मे हिंदी कि यही दशा रही तो एक दिन हम इसे अपनी जिंदगी से इसे भूल जायेगें और हमारी आने वाली नस्लें फिर याद ही करेंगी कि हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी थी। और उसमे दोष उनका नही हमारा होगा क्योंकि आज हम उन्हें खुद अंग्रेजी बोलने पर विवश कर रहे हैं। इसलिये हमे इस बात पर ध्यान देना होगा कि हमारे बच्चे अंग्रेजी के चक्कर मे कही अपनी राष्ट्र भाषा ना खो बैठें। कहीँ वे अंग्रेजी को अपनी मुख्य भाषा ना बाना बैठें। अगर हम अपनी भाषा बोलने से थोडा भी हिचकिचाये तो या हमने हिंदी बोलने मे दूसरो के सामने शर्म महसूस कि तो वाकई एक दिन हिंदी हमारी जिन्दगी और देश से एक दिन लुप्त हो जायेगी। इसलिए हमे हिंदी अधिक से अधिक अपनी जिन्दगी मे प्रयोग करनी चाहिऐ और अल्लामा इकबाल साहब कि इस पंक्ति को याद रखना चाहिऐ ।
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा,
हिंदी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्ता हमारा

रविवार, 19 अगस्त 2007

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