बुधवार, 7 नवंबर 2007

निश्प्रभावी सक्रियता

गिरिडीह में नक्सलियों द्वारा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के बेटे समेत 18 लोगों की हत्या के सिलसिले में राज्य सरकार की तरह से ही केंद्र सरकार की घिसी-पिटी प्रतिक्रिया सामने आना किसी को भी आक्रोश और क्षोभ से भर देने के लिए पर्याप्त है। आखिर केंद्रीय सत्ता ऐसी घटनाओं पर कब तक चिंता जताने और राज्य सरकार से घटना का विवरण जानने तक स्वयं को सीमित रखेगी? हिंसा और हत्या पर उतारू नक्सलियों के खिलाफ राज्य सरकारें तो असहज हैं ही, केंद्रीय सत्ता भी पूरी तौर पर विफल और साथ ही असहज नजर आ रही है। यदि केंद्र सरकार देश के 13 राज्यों में फैल चुके नक्सली संगठनों पर काबू पाने में समर्थ नहीं है तो फिर वह उनके संदर्भ में अपनी निश्प्रभावी सक्रियता क्यों दिखा रही है? बेहतर हो कि केंद्र सरकार और विशेष रूप से केंद्रीय गृह मंत्रालय राज्यों को यह संदेश दे दे कि नक्सली संगठनों पर अंकुश लगाने के मामले में वे उसके भरोसे न रहें। इसी वर्ष मार्च में जब जमशेदपुर में नक्सलियों ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद सुनील महतो की उनके अंगरक्षकों समेत हत्या की थी तब केंद्रीय सत्ता ने ऐसा कुछ जाहिर किया था जैसे वह इस घटना से बहुत विचलित है और नक्सली संगठनों पर लगाम लगाकर रहेगी। नक्सलियों ने जिस प्रकार जमशेदपुर की ही तरह गिरिडीह में अपना खूनी खेल खेला उससे यह साफ है कि केंद्रीय सत्ता ने मार्च में राज्य और राष्ट्र को जो आश्वासन दिया था वह महज कागजी था। नक्सली संगठनों पर काबू पाने के मामले में केंद्रीय सत्ता के नाकारेपन के प्रमाण छत्ताीसगढ़ में भी मिल चुके हैं और बिहार, उड़ीसा तथा आंध्र प्रदेश में भी। ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार नक्सलियों के खिलाफ नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों को कोई दिशा-निर्देश अथवा मदद देने के मामले में सिर्फ कोरी औपचारिकता का निर्वाह कर रही है। यदि ऐसा कुछ नहीं होता तो नक्सलियों का दुस्साहस निरंतर बढ़ता नहीं रहता।
इसमें संदेह नहीं कि नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों का पुलिस बल बहुत ही ढीला-ढाला और संसाधनों से रहित है, लेकिन क्या केंद्रीय सत्ता उनकी मदद नहीं कर सकती? यह चिंताजनक है कि नक्सली संगठन न केवल दुस्साहसी होते चले जा रहे हैं, बल्कि कहीं अधिक आधुनिक हथियारों और विस्फोटक सामग्री से लैस भी होते जा रहे हैं। यह सामान्य बात नहीं कि गिरिडीह में उन्होंने सीआरपीएफ जवानों की वर्दी पहनकर घटना को अंजाम दिया। यदि यही हाल रहा तो नक्सली अन्य राज्यों में भी अपना खूनी खेल दिखाएंगे और हमारे गृहमंत्री तथा प्रधानमंत्री उन्हें आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करते रहेंगे। गिरिडीह की घटना इसलिए कहीं अधिक आघातकारी है, क्योंकि बाबूलाल मरांडी उन चंद नेताओं में से हैं जो नक्सलियों का खुलकर विरोध कर रहे हैं। यह निराशाजनक भी है और चिंताजनक भी कि अब स्थानीय स्तर पर नक्सली संगठनों को ललकारने वाले राजनेताओं की संख्या लगातार कम होती चली जा रही है। चूंकि झारखंड की सरकार केंद्र सरकार के समर्थन से ही सत्ता पर टिकी हुई है इसलिए किसी न किसी स्तर पर इस घटना की जिम्मेदारी उसे भी लेनी होगी। इतना ही नहीं, उसे राज्यों को साथ लेकर नक्सलियों के खिलाफ कोई व्यापक और सघन अभियान भी छेड़ना होगा, क्योंकि वे सचमुच आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे गंभीर खतरे के रूप में उभर आए हैं।

Nishat Shamsi..
Crime Correspondent
IBN 7.. Mumbai