बुधवार, 19 सितंबर 2007

एकता और वारदात?

हमारे देश की एकता सारे देश में मिसाल बनी हुई है। हमारे देश में रहने वाला हर नागरिक अपनी राष्ट्रीयता पर गर्व करता है, कि वह एसे देश में पैदा हुआ जहाँ हर मज़हब के लोग रहते हैं, जहाँ भिन्न -भिन्न भाषायें बोली जाती हैं, जो भिन्न होते हुए भिन्न एकता कि मिसाल कायम करते हैं। यहाँ के लोग एसे हैं कि देश के लिए अगर उन्हें अपने खूण कि आहुति देनी पड़े तो वे इस कार्य में अपना गर्व महसूस करेंगे। इस देश कि असल एकता तो तब देखने को मिलती है जब देश के किसी हिस्से में प्रकृति कि तरफ से कोई संकट आती है या असामाजिक तत्वों के कारण कहीँ मजहब कि आग़ भड्कती है । उस स्थिति में हर नागरिक देश में शांति कि दुवायें करता है । उससे जितना भिन्न होता है वो संकट में पीड़ित लोगों कि भी तन -मन-धन से सहायता करता है । चाहे उसका मज़हब कोई भी हो या बोली कोई भी हो।
लेकिन देश में इतनी एकता के बावजूद लोग अपने आप को सुरक्षित महसूस नही करते हैं। इसका कारण चाहे कुछ भी हो। पहले जब कोई व्यक्ति कहीँ अकेला सफ़र करता था या कहीँ अकेला जाता था और उसे राह में कोई दूसरा व्यक्ति मिल जता था तो वह ख़ुशी से फूला नही समाता था और मन ही मन सोचता था कि अब किसी जानवर का डर नही अब हम एक और एक ग्यारह हैं। लेकिन आज अगर कोई व्यक्ति कहीँ जता है और उसे उसी राह का कोई व्यक्ति मिलता है तो उसका ख़ून सूख जाता है, और वो मन ही मन सोचता है कि कहीँ ये व्यक्ति मुझे मार न डाले, मुझे लूट न ले, मुझे अगवा न कर ले यानी उसकी सोच दूसरे के प्रति बिल्कुल उल्टी हो जाती है। आजकल कोई व्यक्ति दुसरे पर भरोसा नही करता है हमेशा दूसरे के प्रति गलत ही सोचता है। इसलिये आज हमारे देश में इतनी एकता के बावजूद अनेकता है।
आजकल चौराहों पर लुट पाट, महिलाओं से छेड़-छाड़ आदि तो अब आम बात हो चुकी है। आयदिन अखबारों में ये खबरें पढने को मिल जाती हैं लेकिन कभी हमें यह पढने को नही मिलता की किसी ने इसके खिलाफ आवाज़ उठाई। अपराधी हमारी खामोशी का फायदा उठाकर ही लोगों को परेशान करते हैं। वे जानते हैं की आजकल कोई किसी के लिए आवाज़ नही उठाता, लोगों के दिलों से इंसानियत निकल चुकी है। ट्रेनों में तो बालात्कार जैसी घटनाएं आम बात बन चुकी हैं। आजकल अपराधी अपने आप को खुला महसूस करते हैं उन्हें किसी महिला का बलात्कार करने, किसी की हत्या करने में ज़रा भी संकोच नही। वे निडर होकर अपने काम को अंजाम देतें हैं और लोगों का मजमा तमाशा देखने के सिवा कुछ नही कर पाते।
क्या हम किसी जुर्म के खिलाफ एकजुट होकर आवाज़ नही उठा सकते? आज हर शख्स अपनी ही उलझनों में उलझा हुआ है कोई किसी के चक्कर में नही पड़ना चाहता। मैं आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ की लुट पाट करने वालों की संख्या कितनी होई है दो, चार, पंच, दस इतनी ही और मजमा देखनें वाले लोगों की भीड़ कितनी ? क्या हम उनका मुकाबला नही कर सकते हैं? क्या हमारे अन्दर इतनी इंसानियत भी बाक़ी नही की किसी की आबरू को लुटने से नही बच सकते? अगर कोई आवाज़ नही उठाता तो कम से कम हमें आवाज़ उठानी चाहिए जिससे की हमे देखकर लोगों के दिलों में जोश पैदा हो जाये।
हमे ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए की अगर ये घटनाओं का क्रम एसे ही चलता रह तो कल मेरा या तुम्हारा नंबर भी हो सकता है। इसलिये हमें अपनी एकता की मिसाल यहाँ भी बरकरार रखते हुए इसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिऐ। अभी हमने सिर्फ आजादी हासिल की है लेकिन हमें अभी अपनें दिलों को एक द्युसरे जोड़ना होगा। सुरक्षित सफ़र और घूमने की आजे हासिल करनी होगी। और यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम इसके खिलाफ आवाज़ उठाएं और अपराधियों के दिलों में अपनी एकता का खौफ़ पैदा कर दें।

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