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शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2007

राजनीति का नया हथियार "सेतु समुद्र्म"

"आयोध्या के बाद अब रामसेतु"

रामसेतु मुद्दे नें इन दिनों तूल पकड़ा हुआ है। रामसेतु मामले पर केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामा वापस ले लेने, और इस सारी प्रक्रिया के बीच श्री राम चंद्र के बारे में दिये गए आपत्ति जनक बयान से केंद्र कि देश भर में हुई मुश्किलें भले ही मन्द पड़ गई हो, लेकिन देश में आ रहे मध्यावधि चुनाव में कुछ राजनेता इस मुद्दे को चुनावी हथियार बनाने कि तैयारी में हैं। जिनमें से कुछ नेताओं नें तो इसका खुला ऐलान भी कर दिया है। यानि रामसेतु के विरोध में देश कि राजनीति सबसे आगे दौड़ती नज़र आ रही है।
आख़िर कब तक ये राजनीति धर्म से खिलवाड़ करती रहेगी? यू।पी में भी जब-जब चुनाव नजदीक आते हैं तब-तब राजनेता इस मुद्दे को चुनाव लड़ने को इस्तेमाल करते हैं। और इसके कारण सैकड़ों लोगों कि जानें जाती हैं। और जाने कितने घर बर्बाद होते हैं। अब राजनेताओं को एक नया मुद्दा मिल गया है चुनाव लड़ने के लिए। राजनीति एक ऐसा मन्त्र है जो लोगों के कर्म से लेकर धर तक को इस्तेमाल करती है। मैं कहता हूँ कि कोई धर्म आपस में लड़ने कियो इजाजत नही देता फिर क्यों लोग आपस में लड़ रहे हैं? वो भी राम के अस्तित्व को लेकर।
हकीक़त तो ये है कि आज कोई भी नेता मौजूद नही जो बिना किसी मुद्दे के चुनाव लड़ सके। चलो एक दुसरे कि बुरे तो एक सीमित बात थुई लेकिन ये कौन सी राह है जो नेता लोग अपना रहे हैं। धर्म को राजनीति में आता देख लोग भी बहुत प्रभावित हैं। ये राजनीति लोगों कि धार्मिक भावनाओं से खेल रही है। अगर केंद्र सरकार नें एसे विवादों को राजनीती में लाने पर रोक ना लगाई तो एक दिन पुरे देश को इससे नुकसान उठाना पड़ सकता है। केंद्र सरकार को एसे नियम बनाने चाहिऐ कि कोई भी नेता धर्म को लेकर चुनाव ना लड़े, इससे वोटों का भी गलत इस्तेमाल होता है।
अगर राजनीती में धर्मों को खेल बंद ना हुआ तो एक दिन लोग राजनीती के चक्कर में भाईचारा ख़त्म कर बैठेगें। और फिर धार्मिक लड़ाइयाँ शुरू हो जायेगीं।

बुधवार, 3 अक्टूबर 2007

राजनीती कि लगती है अलग अदालत

६६ में से ६५ मामलों में नेता बरी
अभी कुछ दिन पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने चिन्ता व्यक्त कि है कि गवाहों के मुकर जाने के कारण अपराधी छवि वाले नेता बरी हो जाते हैं। न्यायालय ने कहा है कि अपराधी छवि रखने वाले नेताओं के खिलाफ मुकदमों में गवाहों का गवाही से मुकार जाना और उनके पक्ष में हो जाने जैसी घटनाएं बहुत ही भयंकर रूप ले रहीं हैं। जिसके कारण वास्तविक पीड़ितों के साथ अन्याय होता है। उन्हें न्याय नही मिल पता।
इस कारण न्यायिक प्रक्रिया भी बाधित होती है। क्योंकि न्याय कि मुख्य भुमिका गवाहों कि होती है। जब गवाह ही बयान से मुकर जायेगें तो न्याय कैसे होगा? और सभी राजनेता अपने धन बल पर गवाहों को अपने पक्ष में कर लेते हैं। हाल ही में निचली अदालत द्वारा, हाई कोर्ट में भेज गए ६६ मामलों में से ६५ मामलों में नेताओं को बरी कर दिया गया जिसका कारण गवाहों का नेताओं के पक्ष में हो जाना या गवाही से पलट जाना है। इस खबर को पढ़कर मुझे बड़ा ही दुःख हुआ अगर ये सिलसिला जारी रहा तो लोगों का विश्वास अदालत से भी उठ जाएगा। और ये नेता बार-बार गुनाह करके बरी होते रहेगें। इन नेताओं को जिन मुकदमों में बरी किया गया उनमें हत्या, लूट, डकैती, भूमि क़ब्जा, अपहरण और फिरौती जैसे संगीन अपराध के मामले भी शामिल हैं। और इन मामलों में नेताओं ने गवाहों को अपने पक्ष में कर लिया चाहे वो पैसे के बल पर किया हो या डरा धमकाकर। और जिसके चलते ये नेता मुकदमा जीतनें में सफल रहे।
अदालत भी फैसला गवाहों कि बुनियाद पर करती है यह भी कानून कि लाचारी है। अदालत सबकुछ जानते हुए भी गवाहों कि वजह से अक्सर गलत फैसला कर देती है। जज सबकुछ जानते हुए भी गवाहों के कारन अन्याय करने को मजबूर रहते हैं। राजनेता अपनी हरकतों से तो बाज़ आयेगें नही मेरे ख़्याल से कानून को उन गवाहों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए जो अपने बयान से पलट जाते हैं जिन्हे कुछ रूपये देकर नेता खरीद लेते हैं।
कुछ मामलें ऐसे भी होगें जिनमे नेता गवाहों को डराते धमकाते होगें तो उनकी पहचान सरकार को गुप्त रखनी चाहिए। कानून जैसा एक साधारण मनुष्य के लिए है वैसा ही इन राजनेताओं के लिए भी होना चाहिए। जब सरकार को पता है कि गवाहों के कारण ये अपराधी नेता बचते रहते हैं तो उन गवाहों के खिलाफ मुकदमा क्यों नही दायर किया।
और उन नेताओं के खिलाफ भी कड़ी कार्यवाही कि जानी चाहिए जिनके गवाह मुकर जाते हैं। उन गवाहों से पूछताछ करके गहराई तक जाया जाये कि आख़िर वो लोग बयान से क्यों पलटे? किस दबाव के कारण उन्होने बयान बदला या क्यों उन्होने रिश्वत ली और क्यों नेता ने उसे रिश्वत दी। रिश्वत देने वाला और लेने वाला दोनो ही अपराधी होते हैं। इस तरह से गवाहों के खिलाफ आवाज़ उठाई तो इन अपराधी नेताओं को सज़ा दी जा सकती है वैसे जहाँ तक मेरा विचार है एक अपराधी नेता हो ही नही सकता।

सोमवार, 1 अक्टूबर 2007

और किसे पीछे करेगें नेता?

कुछ दिन पूर्व ट्वेंटी- २० में विश्व कप जीकर लौटी, भारतीय टीम के स्वागत में भारतीय किर्केट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष शरद पवार ने कोई कसर नही छोड़ी। टीम का पूरा जुलूस निकला गया जो सहारा एअरपोर्ट से शुरू होकर वानखेड़े स्टेड़ियम पर खत्म हुआ जहाँ लाखो लोग अपने चहेते खिलाडियों कि एक झलक पाने के लिए बेताब थे और पहले से वहां मौजूद थे। यानि लोगों ने अपनी ख़ुशी पूरी तरह ज़ाहिर कि जुलूस मे भी लोगों ने बढ़- चढ़ कर हिस्सा लिया। लेकिन बात यहीं पर ख़त्म नही होती राजनेताओं ने यहाँ भी अपना राजनितिक खेल खेला! शरद पवार जी ने अपने सभी कार्यकर्ताओं (राकपां के नेताओं) को स्टेडियम में अगली पंक्ति में बैठाया जबकि असली खिलाड़ियों को उनके पीछे बैठाया गया। भीड़ से खचा-खच भेरे स्टेडियम में लोग अपना सा मुँह लिए खड़े रहे आख़िर और वे किसे देखते? वे देखने क्या आये थे और उन्हें देखना क्या पड़ा?
इस बात से लोगों को बहुत ही अफ़सोस हुआ कि आखिर खिलाड़ियों को पीछे क्यों बैठाया गया और नेता आगे क्यों बैठे । आख़िर और किसे-किसे पीछे करेगी ये राजनीति और राजनेता? शायद वानखेड़े स्टेडियम में खिलाड़ियों का स्वागत नहीं राकांपा के नेताओं का स्टेज शो होगा, जिसके हीरो शरद पवार जी होगें। शायद एसा ही कुछ सोचा होगा शरद पवार जी ने जुलुस तो लोग याद रखेगें ही लेकिन वान्खेदे स्टेडियम को भी लोग नही भुला पायेगें. जो राजनेता स्टेज पर बैठे थे उन्होने दर्शकों कि भावनाओं पर पानी फेर दिया। लोग असली हेरों को ही नही देख पायें।

आजकल कि राजनीति बिल्कुल बेशर्म हो गई है। और राजनेताओं को सिर्फ अपनी कुर्सी का ख़्याल है। चाहे इसके लिए उन्हें किसी को आगे बढाना पडे या किसी को पीछे बैठाना पडे बस इनकी पार्टी चलनी चाहिए।

गुरुवार, 6 सितंबर 2007

जुर्म का प्लेटफार्म बनती राजनीति

आजकल अपने देश कि राजनीति का रुख बदला- बदला दिखाई पड़ रहा है। जहाँ कल राजनीति का खेल जुर्म रोकने के लिए खेला जाता था आज वहीँ, राजनीति लोगों को जुर्म का प्लेटफार्म प्रदान कर रही है। राजनीति मे आई इस तब्दीली का दोष हम न तो किसी पार्टी को दे सकते हैं और न किसी नेता के ऊपर ऊँगली उठा सकते हैं। एक ज़माना होता था जब अच्छे व्यक्तित्व वाले लोग लोग राजनीती में उतरते थे और समाज को अपराधिक तत्वों से बचाकर सुरक्षा प्रदान करते थे, लोगों के दिलों मे एक दूसरे के मज़हब के लिए सम्मान पैदा करते थे, ताकि लोगों के दिलों मे एक दूसरे के धर्म के प्रति कोई भेद भाव न हो। लेकिन आज कि राजनीति पुरानी राजनीति से बिल्कुल अलग नज़र आती है। आजकल कि राजनीति मे राजनेता एसी-एसी हरकत करने लगे हैं जिसका हम तुम तो अंदाज़ा भी नही लगा सकते। अब अयोध्या को ही ले लीजिये अलेक्शन में हर बार अयोध्या का मुद्दा उठाया जाता है जिसके चलते न जाने कितने स्थानों पे मज़हब कि आग भड़कती है, और उसी आग में न जाने कितने निर्दोषों कि अर्थी भी जल जाती है। ये अलेक्शन कि आग तो ठण्डी हो जाती है, लेकिन उन निर्दोषों का क्या जो लोग अलेक्शन कि बलि चढ़ जाते हैं , उसमे बच्चे, बूढ़े, जवान सभी शामिल होते हैं, किसी कि गोद उजड़ती है किसी कि माँग का सिन्दूर ।
राजनीति अब एक धंधा बनकर रह गयी है । जिधर नेताओं को फायदा नज़र आता है उधर भागते दिखाई देते हैं । हमारे देश में कई ऐसे नेता भी मौजूद हैं जो किसी न किसी कांड के मुख्य आरोपी हैं। कई बार वे नेता जेल के मज़े भी चख चुके हैं । इन सब के बावजूद उन नेताओं के ऊपर कोई फर्क ही नही पड़ता कुर्सी पर आराम से क़मर लगाकर बैठते हैं। आजकल के नेता राजनीति में आकर शायद ये समझते हैं कि उन्हें जुर्म करने का प्लेटफार्म मिल गया हो। इसकी मुख्य उदाहरण भी बहुत हैं लेकिन मैं यहाँ बयां नही करना चाहता । आज नेता लोग अपनी कुर्सी के चक्कर में न तो समाज का फायदा सोचते हैं और न देश का।
जरा गौर कीजिये कि वो लोग समाज को अपराधों से कैसे रोक सकते हैं जो खुद किसी न किसी अपराध के मुख्य आरोपी हो। ये बात सही है कि जेल जाना तो नेताओं कि फितरत में पहले से ही लिखा है लेकिन आज और कल में फर्क सिर्फ इतना है कि '' कल के नेता जनता के हित में जेल जाते थे, और आज के नेता जनता को लूटने खसोटने, और दंगें करवाने के जुर्म में जाते हैं ''।
आज राजनिती कि छवि इतनी गंदी हो गई है की आज इज्जतदार व्यक्ति राजनीति के नाम से भी खामोश हो जाता है। राजनीति मे उतरने कि बात तो अलग है आज इज्जतदार व्यक्ति वोट डालने तक नही जाता, और उसका वोट कोई और डाल देता है। राजनीति में परिवर्तन कि शायद यह भी एक वजह हो सकती है। जनता भी क्या करे जब हर बार नज़रों के सामने नए चेहरे देखने को मिलते हैं जनता ये तय नही कर पाती कि अपना मतदान किसे दिया जाये अगर हमने जल्द ही आंखें नही खोली राजनेता मिलकर इस देश को दीमक कि तरह खा जायेंगे। अब देखना ये है कि आख़िर राजनीति कब तक माफियाओं का अड्डा बनती रहेगी और नेताओं को जुर्म करने का एक सुरशित प्लेटफार्म प्रदान कराती रहेगी। अगर ये अपराधी शख्सियत वाले लोग बार-बार आते रहें तो देश को अपराधों से कौन बचायेगा, लोगों को सुकून कौन दिलाएगा। इसलिये हमें समझ से काम लेना चाहिऐ और ऐसे लोगों कि मुखालफत करके अपने वोटों का सही इस्तेमाल करना चाहिऐ। और अपने वोट का सही इस्तेमाल करना चाहिऐ क्योंकि हमारा सही डाला गया एक -एक वोट किसी को जीता सकता है। आज कि राजनीति को देखकर मैं अपनी लिखी गई दो पंक्ति यहाँ वयक्त करना चाहता हूँ जो शायद आपके सामने आजकल कि हकीक़त को बयाँ कर दे।

राजनीति लोगों पे अब इल्जाम हो गई,
जनता मेरे भारत कि यूं हैरान हो गई।
हर तरफ ज़ुल्म का सा माहौल बन गया,
यूं राजनीति के चलन कि पहचान हो गई।

मंगलवार, 4 सितंबर 2007

भूल रहे हैं हम अपनी राष्ट्रीय भाषा

आजकल कि व्यस्त जिन्दगी में हम अपनी परम्पराओं, अपने कर्तव्यों के साथ-साथ अपनी राष्ट्र भाषा हिंदी को भी भूलते जा रहे हैं और अपने दैनिक जीवन मे हिंदी का बहुत ही कम प्रयोग कर रहे हैं। इसका कारण है विदेशी भाषा को महत्त्व देना और अपने जीवन मे इसका अधिक प्रयोग करना। अब हम अपने बच्चों को हिंदी स्कूलों मे नहीं पढ़ाना नही चाहते क्योंकि हिंदी स्कूलों में पढ़कर हमारा बच्चा ठीक से अंग्रेजी नही बोल पता और आज हर जगह चाहे वो कार्यालय हो, या कोई विद्यालय हो अंग्रेजी का बोलना बहुत जरुरी हो गया है। हिंदी से ज्यादा लोग अपनी जिन्दगी में अंग्रेजी को महत्त्व देने लगे हैं माना कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है लेकिन इसके चक्कर में हमे अपनी राष्ट्र भाषा को तो नही भूलना चाहिऐ।
आज सर्वाधिक पत्र पत्रिकाओं से लेकर समाचार पत्रों तक सभी अंग्रेजी मे ही प्रकाशित होने लगे हैं। यानी हर चीज़ अंग्रेजी मे प्रकाशित होने का चलन सा हो गया है जिससे लोगों को मजबूरन अंग्रेजी सीखनी पड़ रही है क्योंकि जब कोई भाषा बार बार नज़रों के आएगी तो उसका ज्ञान अवश्य ही लेना पड़ेगा। आज लोगों का रुझान हिंदी कि तरफ कम हो रहा है आजकल लोगों ने हिंदी के बीच - बीच में अंग्रेजी के कुछ अक्षर प्रयोग करने शुरू कर दिए हैं जिससे हिंदी कि शुद्धता कम हो रही है। यह भी एक कारण हो सकता है हिंदी को पछाड़ने का। और बाहर कालिजों मे तो दशा इतनी बुरी है कि शिक्षक और शिष्य हिंदी बोलना मानो जानते ही न हों वहां स्टाफ से लेकर सफ़ाई कर्मचारी तक अंग्रेजी मे ही बात करते हैं। जिसके कारण हिंदी मीडियम से आये विधार्थियों को बहुत ही दिक्कतें उठानी पड़ती हैं और पूर्ण रूप से अपनी प्रतिभा को नही दर्शा पाते बहुत से स्कुल और कालेज आपको ऐसे भी मिलेगें जहाँ कैम्पस के अन्दर हिंदी बोलने पर फाईन भरना पड़ता है और बच्चों को शिक्षकों कि डाट खानी पड़ती है। यानी हम अपनी राष्ट्र भाषा जिसे हम सदियों से बोलते आ रहे हैं , के बोलने पर बच्चों को शिक्षक कि डाट खाने पे मजबूर कर रहे हैं। हम भूल गए हैं कि कल इसी भाषा से ''इंकलाब जिंदाबाद'' जैसे नारे लगाए गए थे और आज हम इसी के बोलने पर पाबंदी लगा रहे हैं अपने बच्चों के स्कूलों मे फाईन भर रहे हैं लानत है हम पर। अगर कोई व्यक्ति अंग्रेजी बोलने मे सक्षम नही तो वो अपने आप को अपमानित महसूस कर्ता है अधूरा महसूस करता है हमने इतना सम्मान अंग्रेजी को क्यों दे दिया है जिसकी वजह से हमे नीचा देखना पड़ रह है। क्या हम अपनी भाषा को पिछड़ा हुआ समझ रहे हैं और हम इसे किस नज़रिये से देख रहे हैं ? क्या हमारी नज़रों मे इसकी कुछ कद्र नही है। हमे ये ध्यान नही है शायद कि हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है और राष्ट्र भाषा का मुकाबला कोई भाषा नही कर सकती चाहे वो कोई भी भाषा हो ।
ये हिंदी भाषी नेताओं का ही दम था जो आज हम आज़ाद हुए बैठे हैं और हर काम को अपनी मर्जी से कर सकते हैं। जिस भाषा को उन हिंदी भाषी नेताओं ने आज से लगभग साठ साल पहले इस देश कि सर जामी से उखाड़ फेंका था आज हम खुद उसे अपनी जिन्दगी के अन्दर ला रहें हैं। विदेशी भाषा ने हमारी संस्कृति को भी बहुत प्रभावित किया है कल जहाँ बच्चे सुबह -सुबह उठकर अपने माँ -बाप के चरण स्पर्श करते थे आज वंही गुड मार्निंग और हाय हेलो करते हैं। अगर हमारे देश मे हिंदी कि यही दशा रही तो एक दिन हम इसे अपनी जिंदगी से इसे भूल जायेगें और हमारी आने वाली नस्लें फिर याद ही करेंगी कि हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी थी। और उसमे दोष उनका नही हमारा होगा क्योंकि आज हम उन्हें खुद अंग्रेजी बोलने पर विवश कर रहे हैं। इसलिये हमे इस बात पर ध्यान देना होगा कि हमारे बच्चे अंग्रेजी के चक्कर मे कही अपनी राष्ट्र भाषा ना खो बैठें। कहीँ वे अंग्रेजी को अपनी मुख्य भाषा ना बाना बैठें। अगर हम अपनी भाषा बोलने से थोडा भी हिचकिचाये तो या हमने हिंदी बोलने मे दूसरो के सामने शर्म महसूस कि तो वाकई एक दिन हिंदी हमारी जिन्दगी और देश से एक दिन लुप्त हो जायेगी। इसलिए हमे हिंदी अधिक से अधिक अपनी जिन्दगी मे प्रयोग करनी चाहिऐ और अल्लामा इकबाल साहब कि इस पंक्ति को याद रखना चाहिऐ ।
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा,
हिंदी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्ता हमारा

रविवार, 19 अगस्त 2007

यह एक ब्लॉग क्यों बनाया गया है?

आदाब मैं तारिक़ साबरी इस खुले मंच मे आपका स्वागत करता हूँ। यह खुला मंच सिर्फ आपके लिए बनाया गया है जहाँ से आप अपने विचारों को स्पष्ट रूप से वयक्त कर सकते हैं और आप अपनी बात कहने के पूरे हक़दार हैं। अगर आप को किसी सामजिक बुराई ने, खबर ने या वर्तमान मे चल रहे देश के किसी मुद्दे ने प्रभावित किया है तो आप अपने दिल कि बात को यहाँ (खुले मंच) से लोगों के दिलों तक पहुंचा सकते हैं। ऐसा नही है कि आप अपने विचार सिर्फ हिंदी मे भेजें बल्कि आप अंग्रेजी आदि मे भी टिप्पणी कर सकते हैं। आप अपने विचारों को हमे इस ईमेल आई डी पर भेज सकते हैं।

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